-यशोधरा यादव "यशो"
शाम की हर रश्मि खुद ढलती रही चुपचाप,
लालिमा का हास आ इठला गया कुछ देर,
एक मायूसी मगर पलती रही चुपचाप।
हो गया मन को सकारे शाम का अहसास,
कोई पीड़ा जिन्दगी छलती रही चुपचाप।
कर गया आगाह दिल को एक झोका आ,
एक लौ पर अनवरत जलती रही चुपचाप।
हो गया धूमिल गगन में धूप का साया,
झगुरों की झांझ नित बजती रही चुपचाप।
सिलसिला चलता रहा क्या धूप क्या छाया,
चक्रव्यूह सा ज़िन्दगी रचती रही चुपचाप।
वक्त का तूफान आ झकझोर भी जाता,
पर "यशो" हर आह को सहती रही चुपचाप।
-यशोधरा यादव "यशो"
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